अंतर्नाद
Wednesday, 13 June 2012
विरह कि अग्नि में जलती नदी सी बह रही हूँ मैं ,
मैं निश्छल हूँ मगर छल ज़िंदगी का सह रही हूँ मैं ,
कभी कुछ न कहा हमने तो लोगों ये यही समझा ,
कि विह्वल प्रेम कि प्यासी हूँ तुझमे रह रही हूँ मैं |
2 comments:
CHINTA MANI SHUKLA
14 June 2012 at 04:45
very nice
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Kaustubhi Creations
15 June 2012 at 05:30
धन्यवाद
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very nice
ReplyDeleteधन्यवाद
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