नहीं मालूम कि तुम सत्य थे
या
फिर किसी असत्य ने दस्तक दी थी
मन पर मेरे ,
तुम्हारी आँखों को पढने कि चाह में ,
बार बार आती रही पास तुम्हारे ,
पर कभी मिला ही नहीं सकी नज़रें तुमसे
कभी शर्म के वशीभूत हों ,
कभी प्रेम के ,
और
कभी भय के कि कहीं पढ़ न लूं मैं
तुम्हारी आँखों में वो जो तुम्हारे कर्म कहते हैं |
तुम प्यार के दावे करते रहे और मैं उन्ही को सत्य मान
जीती रही ,
खुश होती रही ,
और
एक दिन तुम्हारी डायरी के पन्नों पर
तुम्हारी ही लेखनी से
कई बार लिखा देखा किसी और का नाम |
फिर भी मन को संजोया
और अपने विश्वास को भी ,
इस जोड़ तोड़ में कि पूछूं या नहीं
मैं जाने कब कह गयी तुमसे ह्रदय कि बात ,
पर स्पस्टीकरण न देकर
तुमने मुझे ही आरोप प्रत्यारोप के
भंवर में फंसा दिया ,
मुझे ही गलत कह
मेरे प्रेम का अनादर कर चले गए तुम
शायद न वापस आने के लिए,
इतने प्रयत्न किये थे तुमने ,
मुझे छोड़ कर जाने के लिए |
इतने प्रयत्न किये थे तुमने ,
मुझे छोड़ कर जाने के लिए |
No comments:
Post a Comment