Thursday 21 June 2012

तुम्हे जी रही हूँ

आज तुम्हारे 
दोस्त से बात कर यूँ लगा 
जैसे वापस पा लिया हों मैंने तुम्हे 
और तुम्हारा सानिध्य ,
तुमने कभी नहीं चाहा कि मैं किसी से कहूँ 
तुम्हारी हूँ मैं 
जैसे सती शिव की |
नहीं रहना चाहती थी राधा बन कर 
तभी उस दिन
शिव के सानिध्य में 
अपनी खाली मांग में भर लिया था 
तुम्हारे नाम का सिन्दूर ,
और  तुमने भी स्वीकृति दी थी 
वो काले मोतियों वाला धागा मेरे गले में पहना कर |
तुमने ही तो कहा था तुम मेरे हों और मेरे रहोगे सदा 
चाहे दुनिया कुछ भी कहे |
और मैंने भी तुम्हारी बातों पर 
विश्वास कर 
मान लिया था अपना शिव |
सबने समझाया था 
द्वापर  में नहीं कलयुग में जन्मी हों
यहाँ कोई कान्हा नहीं 
और शिव औघड़ सन्यासी ,
उस जैसा कहाँ जन्मेगा अब कोई 
जो तुझे सती मान 
उस सिन्दूर का मान रखेगा |
कितना लड़ी थी मैं तुमसे 
और तुम भी बिफर पड़े थे हम पर ,
छोड़ दिया था हमें विश्वास और अविश्वास के दोराहे पर ,
कह दिया था एक को चुन लो 
या दुनिया को और या अपने इस शिव को|
और छोड़ सकल संसार 
रिश्ते  नाते मैं तो तेरे ही पीछे चल पड़ी थी |
आज कहाँ हों तुम जब मैं निर्विकार 
उसी भाव से रोज देख रही हूँ तुम्हारा इंतज़ार ,
ढूंढ रहीं हूँ तुम्हे यहाँ बैठ कर जनपथ की सड़कों पर ,
और जब थक जाती हूँ अकेले में 
पूरी रात रो कर ,
तब तेरे ही किसी अपने में तेरी छाया ढूंढ 
खुश हों जाती हूँ |

मेरा सुख तुम्हे खोजने में ही है 
शायद तुम ये समझ नहीं सके 
और आज मैं खुद में 
हर पल बस तुम्हे जी रही हूँ |

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