आज तुम्हारे
दोस्त से बात कर यूँ लगा
जैसे वापस पा लिया हों मैंने तुम्हे
और तुम्हारा सानिध्य ,
तुमने कभी नहीं चाहा कि मैं किसी से कहूँ
तुम्हारी हूँ मैं
जैसे सती शिव की |
नहीं रहना चाहती थी राधा बन कर
तभी उस दिन
शिव के सानिध्य में
अपनी खाली मांग में भर लिया था
तुम्हारे नाम का सिन्दूर ,
और तुमने भी स्वीकृति दी थी
वो काले मोतियों वाला धागा मेरे गले में पहना कर |
तुमने ही तो कहा था तुम मेरे हों और मेरे रहोगे सदा
चाहे दुनिया कुछ भी कहे |
और मैंने भी तुम्हारी बातों पर
विश्वास कर
मान लिया था अपना शिव |
सबने समझाया था
द्वापर में नहीं कलयुग में जन्मी हों
यहाँ कोई कान्हा नहीं
और शिव औघड़ सन्यासी ,
उस जैसा कहाँ जन्मेगा अब कोई
जो तुझे सती मान
उस सिन्दूर का मान रखेगा |
कितना लड़ी थी मैं तुमसे
और तुम भी बिफर पड़े थे हम पर ,
छोड़ दिया था हमें विश्वास और अविश्वास के दोराहे पर ,
कह दिया था एक को चुन लो
या दुनिया को और या अपने इस शिव को|
और छोड़ सकल संसार
रिश्ते नाते मैं तो तेरे ही पीछे चल पड़ी थी |
आज कहाँ हों तुम जब मैं निर्विकार
उसी भाव से रोज देख रही हूँ तुम्हारा इंतज़ार ,
ढूंढ रहीं हूँ तुम्हे यहाँ बैठ कर जनपथ की सड़कों पर ,
और जब थक जाती हूँ अकेले में
पूरी रात रो कर ,
तब तेरे ही किसी अपने में तेरी छाया ढूंढ
खुश हों जाती हूँ |
मेरा सुख तुम्हे खोजने में ही है
शायद तुम ये समझ नहीं सके
और आज मैं खुद में
हर पल बस तुम्हे जी रही हूँ |
No comments:
Post a Comment