Saturday 28 July 2012

मुद्दत बाद

मुद्दत बाद दुआ को मेरे हाँथ उठे थे ,
मुद्दत बाद मेरे सर पर एक हाँथ आया था |

मुद्दत बाद हँसे थे मेरे सम्पुट पट भी ,
मुद्दत बाद खुशी का आँसू आँख आया था |
मुद्दत बाद तमन्नाओं ने फिर करवट बदली थी ,
मुद्दत बाद किसी का चेहरा याद आया था,
मुद्दत बाद ह्रदय मेरा जीना सीखा था ,
मुद्दत बाद किसी ने उसको तडपाया था|
मुद्दत  बाद दौड़ कर छू लूं चाँद लगा था ,
मुद्दत बाद ह्रदय कुसमित हों मदमाया था ,
मुद्दत बाद किसी के स्वर की बारिश से फिर ,
ह्रदय मेरा कुछ सकुचाया कुछ शरमाया था |
फिर मुद्दत के बाद वही एहसास मिला था ,
धोखों पर धोखों का मुझको त्रास मिला था ,
तुम शिव को अपना कहती हों तो लो झेलो ,
गरल मुझे हर बार सदा वरदान मिला था |




कहेगा क्या कि उसके पास कहने को नहीं कुछ भी ,
मोहब्बत झूठ थी उसक

रुकता है नहीं कैसे ?

फलों से लद गया है वो तो झुकता है नहीं कैसे ?
नदी बन कर जो बहता है वो रुकता है नहीं कैसे ?
जो कहता था मेरे बिन जी नहीं पायेगा एक भी पल 
वो मुझको खो के भी जिंदा भला है आज तक कैसे ?
                                                     रुकता है नहीं कैसे ?
वफाएं मेरे हिस्से थी तो आँसू भी हमारे थे ,
मेरे दिल में जो रहता था नयन से बह गया कैसे ?
                                                     रुकता है नहीं कैसे ?
"समंदर पीर का अंदर है फिर भी रो नहीं सकता ",
जो गाता था ये धुन रो कर वो तनहा हों गया कैसे ?
                                                     रुकता है नहीं कैसे ?
सितम पर वो सितम हम पर किया करते थे लेकिन फिर ,
भरम उनकी मोहब्बत का ह्रदय में रह गया कैसे ?
                                                     रुकता है नहीं कैसे ?

Friday 27 July 2012

बड़ी पाकीज़की से उनके हुए थे हम तो ,

ऊंचा स्थान

कर रही हूँ कोशिश ,
अपने मृत ह्रदय में प्राण भरने की ,
सांसों  को पुनः जीवन देने की ,
और पुनः तैयार कर रही हूँ
मस्तिष्क के विचारों में पड़े
कुछ मौन विचारों को
शब्द देने की |
और दूसरी ओर तुम
फिर कर रहे हों तैयारी ,
ह्रदय को मत्स्य मान भेदने की  |
क्यूँ तुम बार बार मुझे
खत्म करने का प्रयत्न करते हों ,
क्या बस इसलिए ,
की मैं जानती हूँ ,
तम्हारे सभी भेद ,
तुम्हे बाहर से तो सभी ने देखा ,
पर अंदर से कोई ना जान सका |
कभी मुझे सिया कह
तुमने खुद को राम का दर्जा दिया ,
तो कभी राधा कह
खुद को कृष्ण का मान ,
कभी लक्ष्मी कह खुद को नारायण बना लिया ,
तो कभी शक्ति कह
खुद महादेव बन गए ,
पर बार बार तुम्हारा वो मुझे मान देना
वास्तव में 
खुद को ऊंचा स्थान देना था |



साथ

सांसें कब थी साथ हमारे
बस तब तक प्रिय
जब तक तुम थे साथ हमारे ,
अब तो बस  पिंजर है मेरा
आत्मा तो आज़ाद हुयी है ,
हाँ रहने को साथ तुम्हारे |

प्रश्न कैसे ?

विहंगम दर्द कि गंगा न जाने आयी है कैसे ?
सुनामी सी हमारे दिल पे जाने छाई है कैसे ?
सभी को अपना समझा था पराया था नहीं कोई ,
तो तुझमे दुश्मनी की ये झलक फिर आयी है कैसे ?
समंदर  दर्द का अंदर भरा है कैसे कुछ बोलें ,
कि अपनो में भी गैरों सी हरकत आयी है कैसे ?
सभी कुछ पाने कि चाहत में खो कर सब वो बैठा है ,
ना जाने उसमे चाहत कि ललक ये आयी है कैसे ?
कि दो नावों पे रखो पैर मत मिल पायेगा ना कुछ ,
कहावत ये पुरानी उसको अब समझाएं हम कैसे ?
बहुत ऊंचाइयों पर भी नहीं जिया जाता नहीं है दोस्त ,
उसे सीमाओं का मतलब भला बतलाएं अब कैसे ?

उनको ही पूजा किये

लोग  अपना बन के हमको यूँ  दगा देने लगे  , 
और हम पत्थर मिले जो उनको ही पूजा किये |
बंद दरवाज़े दिलो के कर के जब बैठे सभी ,
हमने दिल की सांकलों के सारे ताले तज दिए |
                      और हम पत्थर मिले जो उनको ही पूजा किये |
वो तो अपनों का भी अपना हों नहीं पाया मगर ,
गैर के गम में हमारे दिल ने आँसू खो दिए |
                      और हम पत्थर मिले जो उनको ही पूजा किये |
 कल तलक जो कहता था कि ज़िंदगी उसकी हैं हम ,
आज गैरों के शहर में वो ही खुद को खो दिए |
                      और हम पत्थर मिले जो उनको ही पूजा किये |
 वक्त रहते जो परिंदे लौट कर आयी नहीं ,
नीड़ अपने उन परिंदों ने सदा को खो दिए |
                      और हम पत्थर मिले जो उनको ही पूजा किये |
फिर खुदा भी उनकी हसरत के महल का क्या करे ,
नीव के पत्थर ही कमज़ोर जिसने बो दिए |
                      और हम पत्थर मिले जो उनको ही पूजा किये |

मौन सा है छा गया

क्या लिखूं अब ज़िंदगी में मौन सा है छा गया ,
वो बहुत रूठा है हमसे , गैर उसको भा गया |
                           क्या लिखूं अब ज़िंदगी में मौन सा है छा गया|
हमने तो अपने खुदा पर छोड़ दी कश्ती कभी ,
अपने हिस्से के गुनाहों कि सज़ा वो पा गया |
                           क्या लिखूं अब ज़िंदगी में मौन सा है छा गया|
वक्त रहते जो समझ लेगा स्वयं की गलतियां ,
बस वही मंझधार में फिर से किनारा पा गया |
                           क्या लिखूं अब ज़िंदगी में मौन सा है छा गया|
मैंने जिसको हद से ज्यादा प्यार से देखा कभी ,
मैं उसी में अपने शिव का बिम्ब देखो पा गया |
                           क्या लिखूं अब ज़िंदगी में मौन सा है छा गया|
उसने धोखों पर दिए हर बार हैं धोखे हमें ,
इसलिए वो आज हर रिश्ते से धोखा खा गया |
                           क्या लिखूं अब ज़िंदगी में मौन सा है छा गया|
लौट कर आता है अपना ही किया खुद सामने ,
मेरी आँखों कि नमी से इसलिए घबरा गया |
                           क्या लिखूं अब ज़िंदगी में मौन सा है छा गया|
पूछती रह जायेंगी सदियाँ ये सदियों तक उसे ,
किन गुनाहों की सज़ा वो उम्र भर तक पा गया |
                           क्या लिखूं अब ज़िंदगी में मौन सा है छा गया|

Sunday 22 July 2012

गंगा

मैं गंगा हूँ मुझे अपनी शरण में नाथ तुम ले लो ,
जटाओं में संभालो तुम हमें तुम साथ में ले लो ,
मुझे वरदान दो मैं त्रास दुनिया के हरूँ सारे ,
मुझे  अपना बना कर तुम गरल सहने का गुण दे दो |





दोस्ती और प्यार

किसी ने अब तलक मेरे लिए कविता नहीं लिखी ,
जो लिखी है सनम तुमने तो अब बोलो कि क्यूँ लिखी ,
किया क्या जुर्म है हमने जो तुमने दोस्त ऐ मेरे
कफ़न पर दोस्ती के प्यार कि ये इल्तिजा लिखी |

Wednesday 4 July 2012

अटक लग जाती है हर काम पर मेरे ना जाने क्यूँ ?
बड़ी शिद्दत से करता हूँ मगर मैं काम हर अपना |

तीर्थ धाम

हर नया नाम मुझे तेरे नाम जैसा लगा ,
और कलयुग में मुझे तू ही राम जैसा लगा |

रास जो खेलें मुझे ऐसे बहुत लोग मिले ,
पर मुझे एक तू ही मेरे श्याम जैसा लगा |
घूम आये है जहाँ के सभी गांवों और शहर ,
पर मुझे तेरा ह्रदय तीर्थ धाम जैसा लगा |

Tuesday 3 July 2012

हाँथ ज़माने वाले

अख्ज़ बन कर ना मिल ऐ रिश्ते बनाने वाले ,
अज़ल तक रहते परेशान है ये करने वाले |
ये अजब बात है  आइना भी उनका ना हुआ ,
जो रहे रोज रूप अपना बदलने वाले |
ये तो आगाज़ है अंजामे सफर क्या होगा ,
बस यही सोचते है राह पे चलने वाले |
वो तो आशुफ्ता मेरे पास आके बैठ गया ,
बस इसी आस में कि हम हैं बचाने वाले |
कौन  कहता है आसमानी फ़रिश्ते हैं वो ,
वो तो हमको हैं सरेआम सताने वाले |
कैसे बतलाएं किया हमपे सितम किस तरह ,
जो इबादत में उठे हाँथ ज़माने वाले |


अख्ज़= पकड़नेवाला, लेनेवाला, छीनने वाला, लोभी
अज़ल= अनन्तकाल, सनातनत्व, नित्यता
आशुफ़्ता= बौख़लाया हुआ, घबराया हुआ, भ्रमित

जानते हैं ये |

इन्हें समझाइये अपने तो बोलेंगे ही बोलेंगे ,
मगर ये इनपे है कि किसको अपना मानते हैं ये |
अगर बेबात ही इल्ज़ाम लगाते रहेंगे दोस्त  ,
तो हम भी टूट जायेंगे ये भी जानते हैं ये |
अकेले में भी रोयेंगे इन्ही के सीने से लगकर ,
मगर मेरा कहा सब झूठ अब तो जानते हैं ये |
फरेबी कहते हैं हमको  ज़रा कुछ सोच कर बोलें ,
कि उनकी राह में कांटे नहीं अब मानते हैं ये |
हमारे हाँथ के ज़ख्मो से टपका है लहू दिल का ,
कि हर कतरे पे उनका नाम है ये जानते हैं ये |
सोचती हूँ कुछ लिखूं
पर
पहले कागज का इनकार  ,
फिर  कलम का इनकार ,
और अंततः  ह्रदय का इनकार ,
ह्रदय  ने कहा
नहीं लिखना कुछ भी
क्यूँकि तुम लिखोगी
तो हर
मेरे भाव फिर कागज पर उतारोगी ,
और उन्हें कमज़ोर कर दोगी ,
पर वो नहीं जानता
कि अब कभी ह्रदय अपने भाव कहेंगे ही
बड़े साइंसदानो ने कहा कि ढूंढ डाला है ,
खुदा का एक कतरा मिल गया है आके पहचानो

Monday 2 July 2012

जाने क्यूँ एक एक पल मुझको
बरसों जैसा अब लगता है ,
सीधा सदा सच्चा भी अब ,
दुनिया जैसा क्यूँ लगता है |
रूप का दर्प पहले निहारा करो ,
फिर मुझे प्रियतमा तुम पुकारा करो ,
दाल रोटी कि मुझको ज़रूरत नहीं ,
बस मुझे प्यार से तुम सराहा करो|