Monday 28 January 2013

रस्ते पे चल पड़े थे मुसाफिर की तरह हम ,
मंजिल का था पता नहीं जाने था कौन गम ।
जिसने कहा था साथ न छोडेंगे उम्र भर ,
वो ही है मेरा अब नहीं कैसे सहें ये हम ।
सरगम के सात सुर की तरह दिल में बस गया ,
अब बोलते भी हैं तो बजता है वो हर दम ।
सहने की बात ये नहीं सह सकते थे कुछ भी
पर उसकी जुदाई को भला कैसे सहें हम ।
आँखों की गर्मियों से पिघल कर निकल पड़ा ,
दिल में छुपा था उसका दिया ज़ख्मे तर से ग़म ।
कहता था एक जैसे नहीं होते है सब यार ,
पर करके वार खुद को ही झुठला गया है 
ईश का वरदान है
फिर तुम्हारा यूँ मुझे स्वीकार लेना ,
ईश का वरदान है
तेरा मुझको साथ चलने का सदा अधिकार देना ,
ईश का वरदान है
तू और तेरा साथ मुझको |
बेसाख्ता वो हमसे यूँ लड़ते चले गए
और उनकी इस ऐडा पे हम मरते चले गए ।
कहते रहे वो हमसे बेरुखी के हर इक लफ्ज़ ,
और हम उन्ही की राह पर बढ़ाते चले गए ।
मौका भी था दस्तूर भी कहने का दिल की बात ,
ना जाने फिर भी हम वहां क्यूँ मौन रह गए ।
मुझे फिर से नहीं अब खोलनी हैं सांकलें दिल की ,
है दुनिया में