Monday 4 June 2012

नहीं मालूम कि तुम सत्य थे

नहीं मालूम कि तुम सत्य थे 
या 
फिर किसी असत्य ने दस्तक दी थी 
मन पर मेरे ,
तुम्हारी आँखों को पढने कि चाह में ,
बार बार आती रही पास तुम्हारे ,
पर कभी मिला ही नहीं सकी नज़रें तुमसे 
कभी शर्म के वशीभूत हों ,
कभी  प्रेम के ,
और
कभी  भय के कि कहीं पढ़ न लूं मैं 
तुम्हारी आँखों में वो जो तुम्हारे कर्म कहते हैं |
तुम प्यार के दावे करते रहे और मैं उन्ही को सत्य मान 
जीती रही ,
खुश होती रही ,
और 
एक दिन तुम्हारी डायरी के पन्नों पर 
तुम्हारी ही लेखनी से
कई बार लिखा देखा किसी और का नाम |
फिर भी मन को संजोया 
और अपने विश्वास को भी ,
इस जोड़ तोड़ में कि पूछूं या नहीं 
मैं जाने कब कह गयी तुमसे ह्रदय कि बात ,
पर स्पस्टीकरण न देकर 
तुमने मुझे ही आरोप प्रत्यारोप के 
भंवर में फंसा दिया ,
मुझे ही गलत कह 
मेरे प्रेम का अनादर कर चले गए तुम 
शायद न वापस आने के लिए,
इतने प्रयत्न किये थे तुमने ,
मुझे छोड़  कर जाने के लिए |



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