Monday 28 January 2013

रस्ते पे चल पड़े थे मुसाफिर की तरह हम ,
मंजिल का था पता नहीं जाने था कौन गम ।
जिसने कहा था साथ न छोडेंगे उम्र भर ,
वो ही है मेरा अब नहीं कैसे सहें ये हम ।
सरगम के सात सुर की तरह दिल में बस गया ,
अब बोलते भी हैं तो बजता है वो हर दम ।
सहने की बात ये नहीं सह सकते थे कुछ भी
पर उसकी जुदाई को भला कैसे सहें हम ।
आँखों की गर्मियों से पिघल कर निकल पड़ा ,
दिल में छुपा था उसका दिया ज़ख्मे तर से ग़म ।
कहता था एक जैसे नहीं होते है सब यार ,
पर करके वार खुद को ही झुठला गया है 

1 comment:

  1. अंतिम पंक्ति को कैसे कहे हम कम!
    बाँकी पूरी रचना करती है आँख नम।

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