Tuesday 29 May 2012

जब उसकी आँखों में अपनी परछाईं पायी थी मैंने |

कितने सालों बाद लगाई थी माथे पर बिंदिया मैंने 
जब उसकी आँखों में अपनी परछाईं पायी थी मैंने |
सब कुछ करना भूल गयी थी ,
जीना मरना भूल गयी थी ,
मैं हूँ कौन बनी किस खातिर, 
खुद  को पढना भूल गयी थी ,
कभी कभी लगता था मुझको ,
मेरे अंदर बसने वाली ,
वो छोटी नन्ही सी गुड़िया,
मुझसे  बिना बताये कारण ,
अंदर अंदर टूट गयी थी |
पर उसने छू दिया हमें जब तन संदल सा महक गया था,
मन के अंदर बसने वाला चंचल बालक बहक गया था ,
कितने बरसों बाद ही बरबस कंगना पहन लिया था मैंने 
जब उसके उस प्रेम पाठ का मनन गहन कर लिया था मैंने |
लगता था वो साथ रहे बस 
कभी दूर वो जा न पाए ,
उसके सारे दुःख मेरे हों
सुख मेरे उसको मिल जायें ,
सम्पुट पट उसके मेरे मस्तक 
पर यूँ चुम्बन कर जाये ,
माथे कि बिंदिया शरमा कर ,
उससे अपने नैन चुराए ,
पर उसने छू लिया ह्रदय को यह कह कर  हों सिर्फ हमारी 
तुम पर दुनिया कि सारी खुशियाँ मैं कर दूं वारी ,
नहीं चाहिए तन के बंधन ,मन से अपने हमें बांध लो ,
अपने ह्रदय ताल में सजने वाला मुझको कमाल जान लो ,
इतना  सुन कर नयनों में फिर कजरा डाल लिया था मैंने 
और खुशी के सारे आँसू पल्लू बाँध लिए थे मैंने |

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